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शशांक, पूर्व विदेश सचिव
चीन और भारत का तनाव इन दिनों सुर्खियों में है। कभी सीमाओं पर अतिक्रमण करके, तो कभी धौंस दिखाकर, तो कभी भूटान, नेपाल जैसे हमारे पड़ोसी देशों में अतिक्रमण करके चीन अपनी विस्तारवादी नीति को गति देने में जुटा है। ऐसा लगता है कि उसने छोटे राष्ट्रों पर यह दबाव बना लिया है कि अगर उन्हें ‘बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव’ जैसी योजनाओं का लाभ लेना है या उप-महाद्वीप में शांतिपूर्वक रहना है, तो भारत से दूर रहना होगा। हालांकि मौजूदा घटनाक्रम इस बात की भी गवाही दे रहे हैं कि भारत इस बार जवाब देने के मूड में आ गया है। नई दिल्ली को लग रहा होगा कि उसने अमेरिका से नजदीकियां बढ़ा ली हैं। लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (एलईएमओए) यानी ‘लेमोआ’ जैसे समझौते कर लिए हैं। हथियार-मिसाइलें वगैरह जमा कर ली हैं, तो उसे अब चीन की हरकतों को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। यानी मोदी सरकार के शुरुआती दिनों में द्विपक्षीय संबंधों में जो मधुरता की बात थी, मौजूदा समय में हम उससे काफी ऊपर उठ गए लगते हैं।
इस बदलते घटनाक्रम की वजहें भी हैं। चीन अब विश्व में अपनी बड़ी भूमिका देख रहा है। अमेरिका में ट्रंप सरकार के आने बाद वहां जिस तरह से परिस्थितियां बदली हैं और उसने अपनी नीतियों में बदलाव किया है, उसमें चीन अपने लिए काफी सारी संभावनाएं देख रहा है। चीनी इतिहास में स्टेट्समैन के रूप में दर्ज डेंग शियाओपिंग का कहना था कि अपनी ताकत छिपाकर रखो, सबसे दोस्ती व आर्थिक सहयोग की बात करो। मगर अब यह लग रहा है कि चीन के मौजूदा नीति-नियंता विस्तारवादी नीति और मुल्क को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने को तैयार हैं। वास्तव में, अमेरिका में जारी उथल-पुथल ने चीन की महत्वाकांक्षा बढ़ा दी है। वाशिंगटन इन दिनों कई घरेलू मसलों में उलझा हुआ है। यूरोपीय देशों से उसका साथ छूटता जा रहा है। जर्मनी, फ्रांस जैसे कई देशों का उससे विश्वास डिग-सा गया है और वे नए सहयोगी ढूंढ़ने की बात कह रहे हैं। ब्रेग्जिट की वजह से यूरोप भी नई राह पर बढ़ने को आमादा है। कई प्रतिबंध आयद कर दिए जाने से रूस चीन की तरफ बढ़ता जा रहा है। और तो और, खुद राष्ट्रपति ट्रंप अपनी कोरिया नीति चीन के भरोसे छोड़ चुके हैं। साफ है कि राष्ट्रपति चुनाव के समय ट्रंप जो आरोप चीन पर मढ़ रहे थे कि वह अपने हित में मुद्रा-व्यवस्था से छेड़छाड़ कर रहा है, अपने उत्पाद अमेरिका में खपाने में जुटा है और अमेरिकी नौकरियां खत्म कर रहा है, वे सब के सब आरोप अब अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं।
इससे चीन स्वाभाविक तौर पर बड़ी उम्मीदें संजो बैठा है। यह भारत के लिए किसी झटके से कम नहीं है। नई दिल्ली को भरोसा था कि ट्रंप हुकूमत भी पहले की डेमोक्रेट व रिपब्लिकन सरकारों की लीक पर ही काम करेगी, जिसमें भारत एक मजबूत कूटनीतिक साझीदार के रूप में उसके करीब जाएगा। मगर अब इसकी उम्मीद कम ही दिख रही है। लिहाजा भावुकता में आकर अभी चीन से उलझने की बजाय हमें अपनी कुछ व्यावहारिक कमजोरियों से पार पाना चाहिए। यह सही है कि हमने आर्थिक और सैन्य तकनीक में काफी तरक्की की है, लेकिन सैन्य उत्पादों व तकनीकी को लेकर हमारी निर्भरता अब भी दूसरे देशों पर काफी ज्यादा है। ऐसे में, हम अगर किसी जंग की तरफ बढ़ते हैं, तो देश में सैन्य उत्पाद, हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर का अभाव हो सकता है। यहां तक कि ऐसी नौबत पाकिस्तान के साथ उलझने में भी आ सकती है, जिससे हम पर बेजा दबाव बढ़ेगा।
हमारी कोशिश यह होनी चाहिए, जिसकी तरफ प्रधानमंत्री मोदी ने शुरुआत में कदम बढ़ाए थे कि पड़ोसी देशों के साथ-साथ उन तमाम मुल्कों के साथ संबंधों को विस्तार दिया जाए, जहां प्रवासी भारतीयों ने ऊंचा मुकाम हासिल किया है। जरूरी नहीं कि उन देशों के तमाम रुख का हम समर्थन ही करें, मगर कोशिश द्विपक्षीय मतभेद दूर करने की होनी चाहिए। इसके साथ-साथ हमें अपने को आंतरिक तौर पर भी मजबूत बनाना होगा। कोशिश यह होनी चाहिए कि अगर एक-दो दशक में चीन आर्थिक व सैन्य ताकत में खुद को शीर्ष पर देख रहा है, तो हम भी तब तक एक बड़ी आर्थिक ताकत बन जाएं। अच्छी बात यह है कि युवा आबादी के मामले में हम चीन से बेहतर हैं। लिहाजा युवाओं को रोजगार देकर, निम्न व मध्यवर्ग के लिए बेहतर चिकित्सा-शिक्षा जैसी व्यवस्था करके हम खुद को मजबूत बना सकते हैं।
पर यह उपलब्धि जंग की बात कहकर हासिल नहीं की जा सकती। बेशक इसका एक पहलू आंतरिक आतंकवाद से जुड़ता है, मगर यही सब कुछ नहीं है। सेना प्रमुख कहते हैं कि हमारी फौज ढाई मोर्चों पर यानी चीन, पाकिस्तान और आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों से युद्ध के लिए तैयार है। मगर हकीकत में ऐसा नहीं होना चाहिए। कई ऐसे सामाजिक मसले हैं, जिनके खिलाफ हमें जंग लड़ने की जरूरत है, और यह लड़ाई हम जीत भी सकते हैं, क्योंकि हमारी विरासत काफी संपन्न है।
हमें प्रयास करना होगा कि चीन हमें संघर्ष में उलझाकर अपना हित साधने में कामयाब न हो जाए। इसलिए बीच का रास्ता निकालना जरूरी है। अपने देश व समाज के लिए हमें जिस तरह आगे बढ़ना चाहिए, उस पथ से हम महज चीन की वजह से विचलित न हों। हम व्यावहारिक नजरिया अपनाएं और किसी अतिशयोक्ति से बचें। वक्त चीन से उलझने का नहीं, बल्कि अपनी चुनौतियों से लड़ने का है। हमें यह कतई नहीं सोचना चाहिए कि हमने कितनी ताकत इकट्ठा कर ली है, बल्कि कवायद आपसी विश्वास की पुरानी स्थिति में लौटने की होनी चाहिए। हमें यह नीति न सिर्फ चीन के लिए, बल्कि रूस व अपने तमाम पड़ोसी देशों के लिए भी बनानी चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)